मूर्ति पूजा की शुरुआत श्रद्धा को मजबूत करने के लिए की गई थी। यह उन लोगों के लिए थी जो पृकृति के गूढ़ रहस्यों को नहीं जानते, जो प्रत्यक्ष और परोक्ष में अंतर नहीं कर सकते, जिन्हें कोई प्रतीक चाहिए।
जो सत्य को जानता है उसे प्रतीक की कोई जरूरत नहीं। लेकिन जो अपने अंदर छुपे सत्य को नहीं जानता वह आकृति से जुड़कर ही विश्वास करता है कि उसके जीवन को चलाने वाला कोई है। जैसे बिन ब्याही लड़कियां गुड्डे गुड़ियों से खेलती है, लेकिन शादी होने पर उन्हें छोड़ देती हैं।
जब तक चेतना के रहस्य मालूम ना हो जाए आदमी आकार से जुड़ा रहता है। एक बार अगर आत्मा का ज्ञान प्राप्त हुआ तो वह प्रत्यक्ष को त्याग देता है। अंधविश्वास, ढोंग, पाखंड छोड़ देता है।
शराब पानी से बनती है, सिर्फ पीने पर ही वह शराब है। अगर उसे जमीन पर डाल दी जाए तो उसके गुण, रंगत सब जमीन के ऊपर ही मिट जाते हैं और सिर्फ पानी जमीन के भीतर जाकर फिर से एक बार निर्मल जल बन जाता है। उसी प्रकार शरीर जब पंच तत्वों को छोड़ देता है तो आत्मा भी परमात्मा में मिल जाती है। जो जीते-जी चेतना के रहस्य को अनुभव कर लेता है वह आत्मा और परमात्मा के रहस्य को जान कर जीते हुए ही परमात्मा से जुड़ जाता है।
शरीर और मन के परे होना ही सत्य तक पहुंचने का द्वार है। और इसे जान लेना ही सत्य को जान लेना होता है।
आसमान एक है लेकिन आंखें दो, लेकिन दोनों आंखें देखती एक ही दृश्य हैं। इसका अर्थ यह है कि सत्य एक है, चाहै कितनी ही आंखों से देखा जाए। कितने ही मजहब देखें पंथ देखें। सत्य एक है। निराकार, अनाम, निर्गुण।जिन्होंने इस रहस्य को जाना है वे ही बुद्ध हो गए। इस धरती पर बहुत से बुद्ध रहे हैं, अभी भी हैं, और हमेशा रहेंगे।
रवि शाक्य 🙏
Real music and spirituality mentor.
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