Sunday, May 25, 2025

my own thoughts

[26/05, 8:29 am] ravifilmspro@gmail.com: भीतर से तो सभी सीधा ही सुनना चाहते हैं लेकिन पसंद उन्हें करते हैं जो घुमा फिरा कर कहते हैं, दबा छिपाकर करते हैं।
देखना भी सभी स्पष्ट और साफ चाहते हैं लेकिन पसंद उन्हें करते हैं जो मुखौटे पहने हुए हैं और लबादा ओढ़े हुए हैं।
 क्या यह सच नहीं है ?
[26/05, 8:51 am] ravifilmspro@gmail.com: मेरे विचार, या तो तुम्हें बहुत पसंद आ सकते हैं या तुम्हें असहज कर सकते हैं।
लेकिन नजर अंदाज नहीं कर सकोगे।
[26/05, 8:52 am] ravifilmspro@gmail.com: में वो कहूंगा जिसे तुम सुनना पसंद नहीं करते,
लेकिन जानना जरूरी है।
[26/05, 8:56 am] ravifilmspro@gmail.com: सच चाहे जितना भी साफ क्यों ना हो, अगर वो सत्ता और परंपरा की नींव हिलाने लगे,
  तो उसका विरोध होना तय है।

Thursday, May 1, 2025

तुम्हारे सुविधाजनक भगवान

क्या तुम भगवान से सच में प्यार करते हो या भगवान से सिर्फ डरते हो। क्या तुम भक्ति करते हो या सौदा? चलो बताओ तुम किसे आदर्श किसे अपना इष्ट मानते हो। राम को ? कृष्ण को ? या शिव को? 
   तो तुम राम जैसा पति चाहोगे जो पिता के आदेश पर वन जाए और तुम भी उसके साथ जाओ, वह तुम्हारी अग्नि परीक्षा ले, और तुम गर्भवती हो तब तुम्हें घर से निकाल दे? अगर तुम सच में इसी को धर्म मानते हो तो तुम्हें यह स्वीकार करना होगा नहीं तो तुम मान लो कुछ गडबड है जिसमें तुम फंसाए गए हो।
  चलो तुम तो कृष्ण को आदर्श मानते हो। तो क्या तुम्हें कृष्ण जैसा पति चाहिए जिसकी सोलह हजार पत्नियां हों, और जो बचपन में ही मुहल्ले की लड़कियों के कपड़े चुराकर पेड़ पर बैठकर उन्हें देखे। राधा से प्रेम करें और शादी तुम से करें?
  चलो, तुम इनको नहीं मानते तुम तो सबसे बड़े महादेव शिव को मानते हो तो फिर सोलह सोमवार व्रत करने वाली सभी लड़कियों को जरूर उनके जैसा पति चाहिए होगा जो भांग, धतूरा, चरस , गांजा पीकर नशे में बैठा रहे, जब कोई बहुत जगाए तभी उठे और फिर ध्यान में मग्न हो जाए। 
  क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम ऐसा कुछ भी अपने लिए पसंद नहीं करते ? फिर भगवान् के लिए यह सब क्यों पसंद करते हों।
 हम हमारे शिक्षकों जैसे बनते हैं उनसे सीखते हैं, उनके पदचिन्हों पर चलते हैं। और धर्म के जगत में ये सब भगवान ही हमारे शिक्षक हैं। फिर तुम आवारा गुंडे लड़कों से नफ़रत क्यों करते हो? 
  तुम शराबी से नफ़रत क्यों करते हो ? 
 और तुम ऐसे लोगों से भी नफरत क्यों करते हो जो पत्नि पर शक करते हैं और घर से निकाल देते हैं। ये सब तो तुम्हारे भगवान भी करते हैं?
 दरअसल तुम भगवान से प्रेम करते ही नहीं करते। तुम उन बातों से डरते हो जो भगवान के नाम से जोड़ कर तुम्हें बताई गई हैं।
अच्छा,,, मान लेते हैं तुम भगवान से प्रेम करते हो , तो तुम यही चाहोगे कि भगवान तुम्हें दर्शन दें।  बल्कि वे तुम्हारे साथ रहें। वे रहते हैं तुम्हारे घर के मंदिर में, तुम पूजा करते हो, जल अगरबत्ती, पकवान सब तुम उन्हें खिलाते हो और तुम सोचते हो उन्होंने खा लिया। मगर क्या यह अच्छा नहीं होगा कि वे तुम्हारे साथ रहें एक ही घर में तुमसे बात करें। अपनी पसंद नापसंद भी बताएं, जब तुम कहीं जाते हो तो वे कहें कि कहां गए थे? इतनी देर से क्यों आए। वे तुम्हारी सब तरह से चिंता रखें। कितना अच्छा होगा ना। तुम भी तो यही चाहते हो। 
  मगर मुझे चिंता है कि भगवान तुम्हारे साथ इस तरह से रहने लगें तो तुम उनसे लड़ने तो नहीं लगोगे ? और मुझे सौ प्रतिशत विश्वास है कि तुम ऐसा ही करोगे। जब वे कहेंगे कि आज नारियल नहीं चाउमीन चाहिए। 
  और भगवान् तुम्हारे साथ रहते हैं। वे तुम्हारे पति पत्नि, माता पिता, गुरु और दोस्त, कोई भी हो सकते हैं। और तुम लड़ते भी हो उनसे। मगर उनके बजाए तुमने दूसरे भगवान् का निर्माण कर लिया। इसमें तुम्हें सुविधा है। तुम जो खिलाओ वह खाएं, ना कोई शिकायत ना कोई फर्माइश। मूर्ति में यह सुविधा हो जाती है।
   क्या तुम्हें अब भी लगता है कि ये जो पंडे पुजारी हैं ये तुम्हें बेवकूफ नहीं बना रहे हैं सदियों से ?
 अपने आप से पूछें। इसे पढ़कर कुछ लोगों को बुरा लगेगा क्योंकि वे जानना ही नहीं चाहते, मानकर बैठे हैं। वे ही कथा वाचकों के असली टारगेट होते हैं। और कुछ लोगों का ह्रदय परिवर्तन होगा मगर एक दो दिन असर रहेगा। फिर भूल जाएंगे। मगर जो भगवान् (सत्य) के खोजी हैं वे खोजेंगे ही। क्योंकि असली धार्मिक आदमी भगवान् को मानता नहीं खोजता है। और जबतक मिल नहीं जाता तब तक प्रश्न करेगा, संदेह करेगा।
 में ना तो आस्तिक हूं ना नास्तिक। क्योंकि दोनों ही मानकर बैठे हैं। एक मानता है कि है और दूसरा मानता है कि नहीं है। और मानना ही ग़लत है। खोज में बाधा है। मेरी खोज जारी है।

 Ravi shakya 
Professor.Music.
(संगीत एवं आध्यात्मिक विद्यार्थी)

Friday, March 28, 2025

सुर संवाद, और विवाद

संगीत में एक बहुत महत्वपूर्ण शब्द आता है - संवाद।
  राग में दो महत्वपूर्ण स्वर होते हैं , वादी और संवादी। वादी मतलब मुख्य बोलने वाला और संवादी मतलब उसके समान बोलने वाला। 
  आमतौर पर हिन्दी में भी हम कहते हैं कि दो लोग संवाद कर रहे हैं या संवाद चल रहा है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हर तरह की दो या अधिक लोगों की बात संवाद होती है।
  संवाद का शाब्दिक अर्थ ही है सम+ वाद  अर्थात समान बातचीत। 
  संगीत  और वैज्ञानिक अर्थ में एक निश्चित ध्वनि आवृत्ति (frequency of sound )  का आदान प्रदान, चाहे वह किसी भी ध्वनि यंत्र से हो जिसमें हमारा कंठ भी शामिल हैं संवाद कहलाता है।
  इसके लिए यह भी आवश्यक है कि ध्वनि का वेग और आन्दोलन एक समान हो वर्ना यह संवाद ना होकर विवाद हो जाता है। 
  क्या आपने ग़ौर किया है कि जब आप क्रोध में होते हैं तब आपकी आवाज कैसी होती है ?  निश्चित ही सुरीली तो नहीं। क्योंकि उस समय आप अपने शरीर और मन पर नियंत्रण खो चुके होते हैं। तो ऐसी स्थिति में आपका ध्वनि यंत्र एक समान ध्वनि तरंगों को कैसे उत्पन्न कर सकता है।  उस समय जो ध्वनि तरंग हमारे कंठ से निकलती हैं उनकी ऊंचाई नीचाई बहुत अलग अलग होती है , कभी बहुत ऊंची कभी रोने जैसी जिसमें बहुत बेसुरापन होता है और कभी चीखने जैसी जो सुर की सीमाओं का उलंघन करती है। ऐसी सभी ध्वनियां ना तो वाद हैं ना ही संवाद बल्कि वह कोलाहल होती हैं। साधारण भाषा में हम इसे शोरगुल कहते हैं।
 और इससे यह भी सिद्ध होता है कि संगीत का संबंध भाषा, विज्ञान, गणित और अन्य सभी विषयों से बहुत गहरा है।  संगीत का संबंध ही जीवन से नहीं है बल्कि जीवन  संगीत है। 
  और अगर आप बहुत सारे विषयों का अध्ययन नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं आप संगीत सीख लीजिए। सारे विषयों की समझ आसान हो जाएगी। 
  यह मात्र संयोग नहीं कि अल्बर्ट आइंस्टीन बहुत अच्छा गिटार बजाते थे। 

  रवि शाक्य 🙏
Real music & spirituality mentor.

Wednesday, March 26, 2025

मूर्ति पूजा

मूर्ति पूजा की शुरुआत श्रद्धा को मजबूत करने के लिए की गई थी। यह उन लोगों के लिए थी जो पृकृति के गूढ़ रहस्यों को नहीं जानते, जो प्रत्यक्ष और परोक्ष में अंतर नहीं कर सकते, जिन्हें  कोई प्रतीक चाहिए।
जो सत्य को जानता है उसे प्रतीक की कोई जरूरत नहीं। लेकिन जो अपने अंदर छुपे सत्य को नहीं जानता वह आकृति से जुड़कर  ही विश्वास करता है कि उसके जीवन को चलाने  वाला कोई है। जैसे बिन ब्याही लड़कियां गुड्डे गुड़ियों से खेलती है, लेकिन शादी होने पर उन्हें छोड़ देती हैं।
जब तक चेतना के रहस्य मालूम ना हो जाए आदमी आकार से जुड़ा रहता है। एक बार अगर आत्मा का ज्ञान प्राप्त हुआ तो  वह प्रत्यक्ष को त्याग देता है। अंधविश्वास, ढोंग, पाखंड छोड़ देता है।
शराब पानी से बनती है, सिर्फ पीने पर ही वह शराब है। अगर उसे जमीन पर डाल दी जाए तो उसके गुण, रंगत सब जमीन के ऊपर ही मिट जाते हैं और सिर्फ पानी जमीन के भीतर जाकर फिर से एक बार निर्मल जल बन जाता है। उसी प्रकार शरीर जब पंच तत्वों को छोड़ देता है तो आत्मा भी परमात्मा में मिल जाती है। जो जीते-जी चेतना के रहस्य को अनुभव कर लेता है  वह आत्मा और परमात्मा के रहस्य को जान कर जीते हुए ही परमात्मा से जुड़ जाता है। 
शरीर और मन के परे होना ही सत्य तक पहुंचने का द्वार है। और इसे जान लेना ही सत्य को जान लेना होता है।
आसमान एक है लेकिन आंखें दो, लेकिन दोनों आंखें देखती एक ही दृश्य हैं। इसका अर्थ यह है कि सत्य एक है, चाहै कितनी ही आंखों से देखा जाए। कितने ही मजहब देखें पंथ देखें। सत्य एक है। निराकार, अनाम, निर्गुण।जिन्होंने इस रहस्य को जाना है वे ही बुद्ध हो गए। इस धरती पर बहुत से बुद्ध रहे हैं, अभी भी हैं, और हमेशा रहेंगे।

  रवि शाक्य 🙏
Real music and spirituality mentor.

Thursday, August 15, 2024

स्वतंत्रता क्या है।

स्वतंत्रता, परतंत्रता और स्वक्षंदता इन तीनों में बहुत भेद है। आप कहेंगे इसमें क्या है ये तो हम भी जानते हैं, सभी जानते हैं। जानते हैं, मगर शायद ही अधिकांश लोगों ने इनके शाब्दिक अर्थ पर गौर किया होगा।
स्व + तंत्र अर्थात स्वयं का तंत्र या विधान, स्वयं का सिस्टम, और स्व में विचरण करना ही स्वतंत्र जीवन जीना है। मगर इस अर्थ में आज कोई भी स्वतंत्र मालूम नहीं होता। धरती पर लगभग हर जगह दो ही तरह के लोग दिखाई पडते हैं।एक वे, जो स्वक्षंद हैं और सोचते हैं कि वे स्वतंत्र हैं। दूसरे वे, जो परतंत्र हैं और सोचते हैं कि स्वतंत्र हैं।
आज लगभग पूरी मानव जाति परतंत्र है। कोई भी तो अपने स्वयं के सिस्टम से नहीं चलता। किसी का अपना तंत्र नहीं है। और कहे चला जाता है कि वो स्वतंत्र है।  कोई भी स्वयं के अनुरूप जीवन नहीं जीता।पत्नी पर पति का तंत्र है, तो पति पर पत्नी का , बच्चों पर मां बाप का तो मां बाप पर बच्चों का। घर पर पड़ोस का तंत्र है पड़ोस पर समाज का ।  समाज पर देश का और देश पर नेताओं का। देश का विधान है, मगर किताबी संविधान, उसकी फ़िक्र नेताओं को नहीं है। संसद में संविधान पर बातें होती हैं व्मेंयवहार में कुछ और।  नेता स्वक्षंद हैं और उनका अपना तंत्र है। हम उनकी जय-जयकार करते हैं और अपने कोस्वतंत्र कहते  हैं।
 हम सबको कोई ना कोई चला रहा है और हम चलते हैं गर्व से। हमें पराधीनता की आदत हो चुकी है। आज अगर आप अकेले एक घंटा समय गुजारें तो मुश्किल हो जाएगी।  कोई न कोई चाहिए, कोई साथी।  कोई न्यूज़ पेपर, कोई समाचार या कुछ बेगार ही सही, मगर कुछ किए बिना कैसे रहें  ?कैसे काटें समय  ? 
 अर्थात हम स्व पर नहीं पर, पर निर्भर हैं, पर यानि दूसरा कोई  चाहिए। 
वो कुछ भी हो सकता है, व्यक्ति वस्तु, या विचार ही क्यों न हो। हमें कुछ चाहिए ही, अन्यथा जीना मुश्किल हो जाता है। 
ये परतंत्रता है ।
और सौ में से 99 लोगों की यही समस्या है। ये जो साल में एक बार मनाई जाती है ये राजनीतिक स्वतंत्रता है। लेकिन जो हमें रोज और प्रति पल चाहिए वो आर्थिक सामाजिक धार्मिक और इन सबसे ऊपर आध्यात्मिक स्वतंत्रता है, जो कि उंगलियों पर गिने जाने वाले लोगों के पास ही हो सकती है। विषय बहुत विस्तृत है और हमारे पास धैर्य की कमी है। इस, रील के जमाने में हम धैर्य खो चुके हैं। स्किप करने की आदत हो गई है। इसलिए संभव है कुछ लोगों को कुछ बातें स्पष्ट नहीं हो पाएं। लेकिन हम उसपर चर्चा कर सकते हैं। 
बाहर हाल..
इस आशा के साथ कि हम स्व और तंत्र के आध्यात्मिक अर्थ को न सिर्फ समझेंगे बल्कि जिएंगे भी ‌।
आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 🙏

  Ravi shakya.
Professor Music.

Monday, July 22, 2024

गुरु पूर्णिमा 20/07/24

अषाढ़ की पूर्णिमा, यानी गुरु पूर्णिमा।
  क्या अर्थ है अषाढ़ की पूर्णिमा का ? 
इसका अर्थ है कि चारों तरफ काले बादल हैं, अंधकार है। और इस अंधकार के बीच में जो चांद है वह बादलों को रोशनी दिखाता है। इसीलिए तो अषाढ़ की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा मान लिया गया। 
रोशनी तो सूरज की होती है, चांद की नहीं। मगर तुम सीधे ही सूरज को नहीं देख सकते, तुम सीधे ही ईश्वर को नहीं देख सकते, जल जाओगे, सूरज के प्रकाश को सीधे नहीं देखा जा सकता। ईश्वर के तेज को सीधे ही शिष्य सहन नहीं कर सकते, इसलिए बीच में चांद है, बीच में गुरु है।  जो लेता है रोशनी सूरज से और तुम्हें दे देता है।  गुरु आषाढ़ में चमकता हुआ चांद है और शिष्य अंधेरे में घूमते बादल। 
 " शिष्य होने का अर्थ ही यही है कि दे दे अपना हाथ गुरु के हाथ में, इस भरोसे के साथ कि गुरु के हाथ में परमात्मा है। "
सौंप दे अपने आप को उसके हाथ में इतने भरोसे के साथ जैसे कि एक आदमी नाई के हाथ में अपना गला सौंप देता है जबकि नाई के हाथ में उस्तरा है।  
नाई कभी किसी का गला नहीं काटता बल्कि तुम्हें निखार देता है। ठीक यही काम गुरु का है। लेता है प्रकाश सूरज से और बादलों को दे देता है, लेता है तेज़ परमात्मा से और तुम्हें दे देता है बशर्ते कि तुम इस तरह समर्पित होकर उसके सामने जाओ जिस तरह नाई के पास में बिल्कुल शांत और स्थिर होकर बैठ जाते हो। 

श्रद्धावान लभते ज्ञानम ।

  रवि शाक्य- 
(Professor Music)

Friday, October 13, 2023

मानो मत, जानो....

पुराने समय में सिर्फ खजूर की डाल के ही झाड़ू बनाए जाते थे। और खजूर का कांटा चुभ कर अंदर रह जाए तो वह जितना बाहर निकालने की कोशिश करते हैं उतना ही उल्टा अंदर की तरफ खिसकता जाता है और शरीर के पक जाने पर मवाद के साथ ही बाहर निकलता है। 
तो इस कारण किसी बुद्धिजीवी ने कहा था कि झाड़ू को लात नहीं मारते। क्योंकि कांटा चुभ सकता है उस समय आधुनिक दवाइयां भी नहीं होती थीं। मगर अभी तो फूल झाड़ू और प्लास्टिक के झाड़ू ही चलते हैं और इलाज भी बहुत उन्नत है। मगर किसी पंडित ने बाद में यह भी कह दिया कि झाड़ू में लक्ष्मी का वास होता है इसलिए उसे पैर नहीं लगाते। 
परंपराएं और आडंबर ऐसे ही विकसित हुए हैं मगर हम सिर्फ इसलिए उन्हें मानते हैं कि हमें ऐसा ही बताया गया है। इसी को मानसिक गुलामी कहते हैं। झाड़ू से हम अपने पैरों की धूल झाड़ते हैं, तो लक्ष्मी को उसी में रहना पसंद होगा ? और होगा तो क्या वह सच में लक्ष्मी है ? 
हर परंपरा के पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक कारण था मगर हम जानने की कोशिश नहीं करते बस मानते हैं। ये मानना ही जानने का द्वार बंद कर देता है। इसलिए....
  मनो मत,,,,
 जानो...............

रवि शाक्य, 
संगीत एवं आध्यात्मिक गुरु।