Saturday, October 31, 2020

जिंदगी भर की चाल नहीं बदल सकते

संगीत में स्थिर और नियमित आंदोलन वाली मधुर ध्वनि को नाद कहते हैं। जो कम्पन से उत्पन्न होता है। 
में आपको बताना चाहता हूं कि में यहां संगीत की जानकारी नहीं देने वाला हूं। वो तो कुछ और है, इसलिए पूरा अवश्य पढ़ें।
तो जब ये नाद उत्पन्न होता है तो ये अकेला नहीं होता। इसके साथ कुछ सहायक नाद भी उत्पन्न होते हैं, ये अच्छे भी होते हैं और बुरे भी। परंतु ये सहायक नाद ही उसे अन्य आवाजों से पृथक पहचान दिलाते हैं। जैसे हम सभी एक ही स्वर पर बोलें तब भी हम पहचान लेते हैं कि ये आवाज़ किसकी है। ये हमारे सहायक नाद की वजह से होता है।और जब इन्हें किसी क्रम से उत्पन्न किया जाता है तो एक मधुर धुन की रचना हो जाती है।
में आपको बताना चाहता हूं कि ये बात वस्तुओं पर ही नहीं, व्यक्तियों पर भी ठीक ठीक लागू होती है। जिस तरह किसी वाद्य यंत्र में इनको एक विशेष प्रकार से ट्यून किया गया है तो वह उसकी विशेषता भी है और पहचान भी। आप तुरंत कह सकते हैं कि यह गिटार, या तबला या और कोई वाद्य यंत्र है। और यह आप हैं, या मैं।
ठीक उसी प्रकार व्यक्तियों में भी,  या तो स्वयं के द्वारा स्वयं को, या दूसरों को, या दूसरों द्वारा खुद को कई वर्षों से ट्यून किया गया है।और आज कौन होगा जो दूसरों को अपने हिसाब से ट्यून नहीं करना चाहेगा। मगर प्रकृति ने जन्मजात सभी को विशेष रूप से ट्यून किया है। ये एक कमाल की ट्येयूनिग है जिसे विराट, परमात्मा ही कर सकता है। ये उनकी  विधियां, साधना, विचार, या आदतें  हो सकती हैं। और ये अच्छी भी हो सकती हैं और बुरी भी। और इन्हें हम उनके गुण या दोष के रूप में भी देख सकते हैं, और जेसाकि दोष के रूप में देखते ही हैं। तो नाद अथवा गुण तो सबको समझ नहीं आता परंतु सहायक नाद यानी ध्वनियां सबको सुनाई पड़ जाती हैं, और व्यर्थ की ध्वनियां किसको सुनाई नहीं पड़ जाएंगी ?  जबकि आपके कानों की पूरी चेष्टा, पूरी बुद्धि और चेतना उसमें संलग्न हो ? 
मगर में मज़ा ये है कि आप जिसे बुरी ध्वनि समझते हैं और उसे मिटा देना चाहते हैं आपको शायद ख्याल ही न होगा कि उसी के साथ वह नाद भी बिगड़ जाएगा जिससे मधुर संगीत पैदा होता है।
आदमी का एक गुण भी, मात्र एक गुण नहीं है ।  उसके साथ ही उसकी अन्य क्षमताएं, असीमित संभावनाएं भी जुड़ीं हैं।
जैसे आप गुलाब के फूल को देखें, और चाहें कि इसमें कांटे बुरे हैं और आप उन्हें काटने लगें । आप उन्हें काट सकते हैं। आज तो लोग फूलों को भी मसल देते हैं। तो कांटों को कौन नहीं काट देना चाहेगा ?     मगर आप भूल रहे हैं कि गुलाब के पौधे का गुलाब होना केवल फूल का होना ही नहीं है, कांटे भी उसके अस्तित्व का हिस्सा हैं। 
आप जैसे ही एक कांटे को काटते हैं, पौधा भी कटता है। उसमें से कुछ कम होने लगता है। आप ये भी भूल रहे हैं कि कांटे आपको नापसंद हैं, मगर फूल को नहीं। फूल को उनकी जरूरत है वे उसकी सुरक्षा के लिए हैं। वे आपको भी नुकसान नहीं पहुंचाते जब तक कि आप उनके कार्य में बांधा न डालें। फिर भी आप उन्हें काटते हैं तो एक दूसरी बात यह भी है कि आप की संवेदनशीलता कुछ कम हो गई है। और आप स्वार्थी हो गए हैं।
तो जब आप किसी इन्सान के किसी एक गुण को मिटाने की कोशिश में लग जाते हैं, तो आप उसे धीरे धीरे काट रहे होते हैं । उसके कांटों को ही नहीं, फूल को भी, ध्वनि को ही नहीं, नाद को भी, स्वभाव को ही नहीं, जीवन को भी।
हमारा स्वभाव प्रकृति का सृजन है और उसके अनुसार कार्य करना हमारा चरित्र। ध्यान रहे ये वो चरित्र नहीं जो मानव निर्मित होता है।  वो तो दो कौड़ी का है, उसका कुछ मूल्य नहीं। ये तो पृकृति प्रदत्त चरित्र है। और जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार है। प्रकृति ने हमको विशेष प्रवृत्ति दी है वहीं असली चरित्र है।और उसमें हस्तक्षेप करना प्रकृति में बाधा उत्पन्न करना है ।जो कि बिलकुल भी ठीक नहीं है।
क्या में छोटी सी कहानी सुना सकता हूं ?
       विद्यासागर को गवर्नर के द्वारा सम्मानित व पुरस्कृत किया जाना था। विद्यासागर तो अपने ही ढंग से रहते थे। कुर्ता-पायजामा और हाथ में लाठी। 
उनके मित्रों ने कहा- बड़ा समारोह होगा, तो इस तरह जाना उचित नहीं।कुछ कपड़े खरीद लें,  उन्होंने मना भी किया, मगर मित्र नहीं माने। अतः सूट बूट खरीद लिए। शाम को विद्यासागर जी नदी किनारे टहलने गए थे। वहां एक मौलवी साहब को देखते हैं, जिनके चेहरे पर अपार शांति थी।और आहिस्ता आहिस्ता, सधी हुई चाल में चल रहे थे। एक आदमी दौड़ता हुआ आया और मौलवी साहब से कहा -  "आपके घर में आग लग गई"। वे वैसे ही चलते रहे, उस आदमी ने दोबारा कहा "आपने सुना कि नहीं, मेंने कहा घर में आग लगी है"। मौलवी ने कहा -"सुन लिया है"। और वैसे ही धीरे धीरे चलते थे। अब तो विद्यासागर जी से रहा न गया, वे उनके पास जाकर बोले- "आप भी अजीब हैं, उसने कहा आपके घर में आग लग गई है। और आप वेसे ही चल रहे हैं ?
मौलवी ने कहा, आग लग गई तो मैं क्या करूं ? लग गई तो लग गई। इसके लिए क्या जिंदगी भर की चाल बदल दें ? 
विद्यासागर ने घर पहुंच कर मित्रों से कहा ये कपड़े वापस करें। गवर्नर के लिए -"जिंदगी भर की चाल नहीं बदल सकते"।
Professor Ravi Shakya,
Music and spirituality mentor

Tuesday, October 27, 2020

जाति न पूछो साधु की।

पांडित्य कोई भी संबंध धर्म से नहीं ।
एक छोटी सी कहानी से अपनी बात को स्पष्ट करने की कोशिश करता हूं,
एक बूढ़ा गुरु था, छोटा सा उसका आश्रम था, एक दिन एक नया संन्यासी उसके आश्रम में आया, ओर ज्ञान प्राप्त करने के लिए रहने लगा, 
10-15 दिन बीत गए, तब उसे लगा कि उस बूढ़े गुरु के पास कुछ अधिक ज्ञान नहीं है, बहुत थोड़ी सी बातें हैं, उन्हें ही रोज दोहरा देता है, थोड़े से ही शिष्य हैं और थोड़ी सी ही बातें हैं, 
उसने विचार किया कि आज ही वो किसी दूसरे गुरु की तलाश में निकल जाएगा।
उसने विचार किया ही था ओर घटना घट गई, उसी समय एक दूसरा संन्यासी आ गया । 
और उस दूसरे संन्यासी ने बूढ़े गुरु के साथ रात भर ज्ञान की चर्चा की, खूब शास्त्रार्थ किया, और ये जो पहला संन्यासी था, बढ़े ध्यान से सुन रहा था, और मन में विचार किया कि बस मिल गया असली गुरु, कितना सुन्दर और विचित्र ज्ञान है इसका, कैसी अद्भुत ज्ञान की चर्चा की है इसने, बस सुबह ही इनके साथ चला जाऊंगा।
फिर उस ज्ञान की चर्चा करने वाले शिष्य ने अपनी बात बात खत्म करके बूढ़े गुरु से बोला, बूढ़ा गुरु अभी तक आंख बंद किए बस सुन ही रहा था । और उसने बूढ़े गुरु से बोला, तो महानुभाव मैंने आपसे जो कुछ ज्ञान की चर्चा की उस पर आपकी क्या राय है।
गुरु बोला, मेरे मित्र पहली बात तो यही कहनी है कि मैं दो घंटे से आंख बंद करके सुनता हूं लेकिन तुमने तो कुछ बोला ही नहीं।
तुमने क्या बोला ?
वह आदमी हैरान होकर बोला यह आप क्या कहते हैं? अरे दो घंटे से मैं ही तो बोल रहा था, भला मैं नहीं तो मेरे भीतर से  कौन बोल रहा था ?
गुरु ने फिर आंखें खोली और कहा, 
किताबें !
ये सब तो किताबें बोल रहीं थीं, शाश्त्र बोल रहे थे तुम नहीं।
और उस पहले शिष्य की आंखें खुल गईं।
इसके बाद उसने निश्चय किया कि वो आजीवन इसी आश्रम में रहेगा ।
ऐसा ज्ञान जो कहीं से आकर हमारे भीतर से बोलने लगता है, उसे छोड़ देना चाहिए। और तब जागेगा वो ज्ञान जो हमारे भीतर छुपा है।
     दो तरह का ज्ञान है, एक तो कुंए की भांति और दूसरा हौज की भांति।
एक तो वो जो यहां वहां से इकट्ठा किया हो, और दूसरा वो जो भीतर से अनुभव किया गया हो, जो शब्दों में कहा ना जा सके, जिसे किताबों बांधा न जा सके।
जैसे कि कोई पानी के लिए हौज बनाए और पानी को इकट्ठा करले ! जो कि पंडित, मौलवी, अच्छी तरह करते रहे हैं।
और जिसका जितना बड़ा हौज.....…. 
तो वह ईंट, पत्थर, आदि लाएगा, और दीवार बनाकर पानी को उसमें भर देता है, सब तरह का पानी।  वेद का,कुरान का, बाईबल का........भर दिया और ढक्कन लगाकर उसपर बैठे जाए, जो कि बैठे हुए ही हैं ।
और भले ही वह पानी कुछ दिन में सड़ जाएगा मगर हटना नहीं है, ढक्कन भी नहीं खोलना है।
वहीं दूसरा है कुंए का पानी,  उसके लिए ऊपर पढ़ें ईंट पत्थर को हटाकर भीतर से कोई स्त्रोत, कोई सोता निकालना होता है, ईंट पत्थर लाना नहीं है, दीवार भी नहीं बनाना है,
अपने मस्तिष्क पर पढ़ें ईंट पत्थर हटाना होता है ज्ञान का सोता निकालना होता है, हौज में पानी नहीं है, उसमें पानी लाकर डालना होता है, कुंए में पानी होता है, ज्ञान भी ऐसा ही है, पंडितों ने ईंट पत्थर इकट्ठा किए हैं दीवार बना दी है ! हिंदू होने की दीवार, मुसलमान होने की दीवार, कम्युनिस्ट होने की दीवार, और ना जाने कौन कौन सी.....और तरह तरह के ज्ञान लाकर भर दिए हैं,  पुराण के, कुरान के! अपनी अपनी हौज है, और हौज का झगड़ा। लेकिन मजे की बात ये है कि जितनी बड़ी हौज हो उतनी ही जल्दी सड़ जाती है।
ज्ञान का संबंध किसी धर्म और जाति से नहीं है। जाति ना पूछो साधु की, और पढ़ें सो पंडित होय, कबीर की इन बातों को हमें आज फिर से अंगीकार करने की जरूरत है ।
Professor Ravi Shakya
Music and sprituality mentor

Monday, October 26, 2020

आदमी की खोपड़ी कभी भरी नहीं है

एक राजा के दरबार पर एक फकीर आया, राजा ने कहा  मांगों जो चाहिए मिलेगा। राजा ही था कोई मामूली आदमी नहीं, और फिर आदमी अपने को मामूली समझता भी कहां है। फकीर ने कहा एक शर्त है उसे मानो तो ही भिक्षा लूंगा, राजा के सामने शर्त की कीमत ही क्या, उसने और घमंड से कहा बोलो, हमें हर शर्त मंज़ूर है, फकीर बोला, ये जो मेरा भिक्षापात्र है, इसे पूरा भर सको तो ही देना, अगर न भर सको तो अभी कह दो में चला जाता हूं, 
फिर तो राजा का घमंड ? उसने कहा इसके भिक्षा पात्र को हीरे-जवाहरात से भर दो, 
सुबह से शाम हो गई, राजा के दरवाज़े पर शहर के लोगों का मेला लग गया, और राजा के खजाने खाली हो गए मगर वह भिक्षापात्र खाली ही रहता, भरते भरते लोग बेहोश होकर गिर गए और वह खाली ही रहा, 
तब राजा आकर फकीर के पैरों में गिर गया, और बोला, महाराज मुझे क्षमा करें में भ्रम में था कि मेरे पास अपार धन है, और इस बेहोशी में ही मेरी जिंदगी गुज़र गई। मगर आप कृपा करके इतना बताएं कि ये राज़ क्या है? मेरे खजाने खाली हो गए, और ये भिक्षापात्र क्या है जो भरता नहीं ।
फकीर ने कहा, 
एक दिन आधीरात को एक शमशान से गुजरता था, और कुछ पड़ा हुआ दिखाई दिया, में ने उसे उठा लिया, सुबह जब देखा तो वह एक आदमी की खोपड़ी थी, मेंने उसे ही अपना भिक्षापात्र बना लिया ।
और मैं खुद हैरान हूं कि आज तक कोई इसे भर नहीं सका है, हजारों लोग हार गए, और मेरे अनेक शिष्य जो काफी सम्पन्न हैं, किसी किसी ने तो लड़ाइयां भी कीं
 कि वे इसे भरकर ही रहेंगे, मगर ये आदमी की खोपड़ी कभी भरी नहीं, और अब मैं जान गया हूं मैं, ये आदमी की खोपड़ी न कभी भरी है और न कभी भर सकेगी । आदमी की खोपड़ी कभी भरी नहीं है।

Wednesday, October 21, 2020

सदगुरु तो चाहिए ही

संदर्भ:-  हर परिस्थिति में संतुलन बनाए रखना ही प्रसन्नता का मूल मंत्र है। एक भाई के विचार का जवाब।
अच्छा विचार है, परंतु,काश ! सभी लोग ऐसा कर सकते, और ये इतना आसान होता। क्योंकि परिस्थितियों में संतुलन कोई छोटी बात नहीं है, परिस्थितियां एक से बढ़कर एक भयावह हो जाती हैं जिनमें अच्छे अच्छे शूरवीरों के भी पैर उखड़ने लगते हैं। और जब भी ऐसा हुआ है तब किसी गुरु ने मार्गदर्शन किया है। उदाहरण के लिए आल्हा ऊदल को देखें, ऐसे अनेक मौके आए जब परिस्थितियां उनके बस में नहीं थीं, कोई रास्ता नहीं सूझता था, तब गुरु गोरखनाथ ने ही उनको रास्ता दिखाया था। तो ये एक बहुत बड़ी बात है, और  इसके लिए आध्यात्मिक अभ्यास, सत्संग और सदगुरु का मार्गदर्शन चाहिए। ये कोई ऐसा काम नहीं कि हमने पढ़ा, सुना और करने लग जाएं। पहले तो परिस्थितियां प्राकृतिक हैं या स्वयं निर्मित, दोनों के लिए संतुलन बनाने का सही तरीका अलग हो सकता है। और संतुलन का ठीक ठीक अर्थ भी पता हो। तो, ये इतनी सी बात नहीं है। मगर कहने सुनने के लिए अच्छी है। हो सकता है कोई ऐसा कर भी ले, या ये भी हो सकता है कोई चोरी और पूजा दौनो करे और समझे कि संतुलन बन रहा है, एक शराबी रात की जगह दिन में पीने लगे और कहे कि अब रात में नहीं पीता तो संतुलन बन गया। बहुत सी बातें हो जाएंगी। हम सब पढ़ें लिखे हैं, मगर सबका अपना अपना रास्ता है जिस पर चलने में हम ट्रेंड नहीं होते हैं कोई उस रास्ते का विशेषज्ञ भी होता है, हमें उसका मार्गदर्शन लेने में संकोच नहीं करना चाहिए। चाहे वो कोई भी हो, मां बाप, भाई बहन, दोस्त या शिक्षक। वरना हमारा कार्य एक बुनियाद रहित मकान बनाने जैसा भी हो सकता है। इसी लिए गुरु तो चाहिए ही। क्योंकि फूल हम घर में भी सूंघ सकते हैं परन्तु वाटिका की बात ही कुछ और होती है। 
आप सभी को गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएं।
प्रो. रवि शाक्य।
संगीत एवं आध्यात्मिक गुरु

Saturday, October 17, 2020

तुम्हारे परमात्मा तुम हो

अगर धरती पर कुछ ठीक करने की जरूरत है तो वह है आदमी का दिमाग, बाकी सब तो बहुत सुंदर है, 
बाहर बहुत देख लिया, अब तक कुछ पाया नहीं, जबसे पैदा हुए हैं हम बाहर ही तो देखते रहे हैं, वस्तुएं दिखाई पड़ती हैं, उन्हीं का आकर्षण बना हुआ है, और ये आकर्षण भी मात्र आकर्षण नहीं, मोह है। और ये कभी छूटता नहीं, पिछली बार भी हम इस मोह के साथ ही मर गये थे, कई जन्मों से यही खेल चल रहा है, और हर बार कुछ साथ नहीं ले जा सके। क्योंकि हमने बाहर से कुछ पाया ही नहीं, और जिसे तुम समझते हो कि ये तुमने पाया है तो तुम भ्रम में हो। बहुत मकान बनाए, बहुत पद और धन पाया, ऐसा तुम्हें लगता है ऐसा है नहीं, क्योंकि तुम मृत्यु के पार एक सुई भी नहीं ले जा सकते। तो ऐसा क्या है जो तुम अपने साथ ले जाने में समर्थ हो, और वह कहां है ?
क्या कभी तुमने अपनी सांसों पर ध्यान दिया है ? तुम हंसोगे कि सांस पर भी कोई ध्यान देंना होता है, वह तो चलती ही है, अपने आप।
मगर तुम्हारी सांस का चलना इतनी छोटी बात नहीं है, क्योंकि आज रात जो सो गये हैं उनमें से हजारों कल नहीं उठेंगे, और उनकी सांस नहीं चल रही होगी। तो क्या अब भी आप कहेंगे कि सांस पर क्या ध्यान ?
थोड़ी देर एकांत में बैठकर अपनी आती जाती सांसों को महसूस करें, कुछ दिनों के अभ्यास से तुम्हें एक और मार्ग दिखाई देने लगेगा ।
भीतर कुछ है, पहले थोड़ा ऐसा ही लगेगा, और जैसे जैसे अभ्यास बढ़ेगा एक दिन तुम पाओगे कि भीतर ही सबकुछ है, बाहर सब बकवास, क्योंकि भीतर तुम हो,तो भीतर परमात्मा है, परम आनंद भी, और दूसरा कोई है ही नहीं, बस एक ही है । परम आत्मा, और उसे तुम व्यर्थ ही बाहर ढूंढ रहे थे। भीतर जीवन है, तुम एक जीवन हो, इतना ही पर्याप्त है परमात्मा का धन्यवाद करने के लिए । भीतर परम आनंद है, और कोई चाह बाकी नहीं रह गई। तुमने इस जीवन को भरपूर जिया, परम आनंद के साथ, और ये आनंद तुम अपने साथ मृत्यु के पार ले जाने में समर्थ हो। मेरा अपना विचार है कि मृत्यु के क्षण में,  में पूरे आनंद में रहूं, मेरी आंखों में एक विजेता सी चमक हो, अनंत यात्रा का एक उत्साह हो, मेंने जीवन में स्वयं को खुश रखा, और दूसरों को भी, एक ऐसे धन का भंडार मेंरे साथ हो।
हां ! ये सब में अपने साथ ले जा सकता हूं। 

प्रो. रवि शाक्य, 
संगीत एवं आध्यात्मिक गुरु।