Tuesday, October 27, 2020

जाति न पूछो साधु की।

पांडित्य कोई भी संबंध धर्म से नहीं ।
एक छोटी सी कहानी से अपनी बात को स्पष्ट करने की कोशिश करता हूं,
एक बूढ़ा गुरु था, छोटा सा उसका आश्रम था, एक दिन एक नया संन्यासी उसके आश्रम में आया, ओर ज्ञान प्राप्त करने के लिए रहने लगा, 
10-15 दिन बीत गए, तब उसे लगा कि उस बूढ़े गुरु के पास कुछ अधिक ज्ञान नहीं है, बहुत थोड़ी सी बातें हैं, उन्हें ही रोज दोहरा देता है, थोड़े से ही शिष्य हैं और थोड़ी सी ही बातें हैं, 
उसने विचार किया कि आज ही वो किसी दूसरे गुरु की तलाश में निकल जाएगा।
उसने विचार किया ही था ओर घटना घट गई, उसी समय एक दूसरा संन्यासी आ गया । 
और उस दूसरे संन्यासी ने बूढ़े गुरु के साथ रात भर ज्ञान की चर्चा की, खूब शास्त्रार्थ किया, और ये जो पहला संन्यासी था, बढ़े ध्यान से सुन रहा था, और मन में विचार किया कि बस मिल गया असली गुरु, कितना सुन्दर और विचित्र ज्ञान है इसका, कैसी अद्भुत ज्ञान की चर्चा की है इसने, बस सुबह ही इनके साथ चला जाऊंगा।
फिर उस ज्ञान की चर्चा करने वाले शिष्य ने अपनी बात बात खत्म करके बूढ़े गुरु से बोला, बूढ़ा गुरु अभी तक आंख बंद किए बस सुन ही रहा था । और उसने बूढ़े गुरु से बोला, तो महानुभाव मैंने आपसे जो कुछ ज्ञान की चर्चा की उस पर आपकी क्या राय है।
गुरु बोला, मेरे मित्र पहली बात तो यही कहनी है कि मैं दो घंटे से आंख बंद करके सुनता हूं लेकिन तुमने तो कुछ बोला ही नहीं।
तुमने क्या बोला ?
वह आदमी हैरान होकर बोला यह आप क्या कहते हैं? अरे दो घंटे से मैं ही तो बोल रहा था, भला मैं नहीं तो मेरे भीतर से  कौन बोल रहा था ?
गुरु ने फिर आंखें खोली और कहा, 
किताबें !
ये सब तो किताबें बोल रहीं थीं, शाश्त्र बोल रहे थे तुम नहीं।
और उस पहले शिष्य की आंखें खुल गईं।
इसके बाद उसने निश्चय किया कि वो आजीवन इसी आश्रम में रहेगा ।
ऐसा ज्ञान जो कहीं से आकर हमारे भीतर से बोलने लगता है, उसे छोड़ देना चाहिए। और तब जागेगा वो ज्ञान जो हमारे भीतर छुपा है।
     दो तरह का ज्ञान है, एक तो कुंए की भांति और दूसरा हौज की भांति।
एक तो वो जो यहां वहां से इकट्ठा किया हो, और दूसरा वो जो भीतर से अनुभव किया गया हो, जो शब्दों में कहा ना जा सके, जिसे किताबों बांधा न जा सके।
जैसे कि कोई पानी के लिए हौज बनाए और पानी को इकट्ठा करले ! जो कि पंडित, मौलवी, अच्छी तरह करते रहे हैं।
और जिसका जितना बड़ा हौज.....…. 
तो वह ईंट, पत्थर, आदि लाएगा, और दीवार बनाकर पानी को उसमें भर देता है, सब तरह का पानी।  वेद का,कुरान का, बाईबल का........भर दिया और ढक्कन लगाकर उसपर बैठे जाए, जो कि बैठे हुए ही हैं ।
और भले ही वह पानी कुछ दिन में सड़ जाएगा मगर हटना नहीं है, ढक्कन भी नहीं खोलना है।
वहीं दूसरा है कुंए का पानी,  उसके लिए ऊपर पढ़ें ईंट पत्थर को हटाकर भीतर से कोई स्त्रोत, कोई सोता निकालना होता है, ईंट पत्थर लाना नहीं है, दीवार भी नहीं बनाना है,
अपने मस्तिष्क पर पढ़ें ईंट पत्थर हटाना होता है ज्ञान का सोता निकालना होता है, हौज में पानी नहीं है, उसमें पानी लाकर डालना होता है, कुंए में पानी होता है, ज्ञान भी ऐसा ही है, पंडितों ने ईंट पत्थर इकट्ठा किए हैं दीवार बना दी है ! हिंदू होने की दीवार, मुसलमान होने की दीवार, कम्युनिस्ट होने की दीवार, और ना जाने कौन कौन सी.....और तरह तरह के ज्ञान लाकर भर दिए हैं,  पुराण के, कुरान के! अपनी अपनी हौज है, और हौज का झगड़ा। लेकिन मजे की बात ये है कि जितनी बड़ी हौज हो उतनी ही जल्दी सड़ जाती है।
ज्ञान का संबंध किसी धर्म और जाति से नहीं है। जाति ना पूछो साधु की, और पढ़ें सो पंडित होय, कबीर की इन बातों को हमें आज फिर से अंगीकार करने की जरूरत है ।
Professor Ravi Shakya
Music and sprituality mentor

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