इस पीढ़ी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि आज हम सारी सुविधाओं के साथ जी रहे हैं, ख़ास तौर पर ये बात युवाओं को पता होना चाहिए।
अगर हम एक पीढ़ी पहले देखें, तो आपके पास गूगल, स्मार्टफोन आदि कुछ भी नहीं थे। तो क्या युवा बेरोजगार थे !
बिल्कुल नहीं, उनके पास बहुत काम होता था। खेती का, घर के काम आदि । उनका बचपन मेहनत के साथ गुजारता था, जो उन्हें व्यस्त तो रखता ही था बल्कि मेहनती और आत्मनिर्भर भी बनाता था । मगर आज तो बच्चे घर का काम करें, तो पिछड़ा पन समझा जाता है, ओर पूर्ण एशो-आराम दैना स्टेटस सिंबल बन गया है। दुर्भाग्य से आज के मां बाप अपने बच्चों को ऐसा जीवन देना चाह रहे हैं कि उन्हें कुछ भी नहीं करना पड़े, वे उनके लिए सारी सुविधाएं जुटाकर मरना चाहते हैं।
आपके मां बाप ने आपके लिए क्या ऐसा ही किया था ? अगर नहीं तो क्या आप कुछ नहीं कर पाए ? नहीं, आप इतना कैसे कर पाए कि अपने बच्चों की जिंदगी सुरक्षित करने में लगे हैं, आपको तो बस रोजी-रोटी के लिए संघर्ष ही करना चाहिए था ।
तो क्या आप सोचते हैं कि आपके बच्चे बिल्कुल नकारा हैं, वे खुद कुछ नहीं कर पाएंगे ?
युवावस्था में जब ऊर्जा अपने चरम पर होती है और उर्जा बाहर फूट पड़ना चाहती हो और हम उन्हें मोबाइल रुपी झुनझुना थमा देते हैं, तो वे क्या करेंगे ? कोई यूनिवर्सिटी में बजाएगा, कोई शाहीन बाग में, फिर उससे भी संतुष्ट नहीं होगा तो पत्थर उठाएगा, सवाल ये नहीं है कि किस पर फेंकना है, बस ऊर्जा को बाहर निकालना है । और कोई रास्ता भी तो नहीं है,
आपको शायद याद हो जब हम छोटे थे तो नदी किनारे पर पूरी ताक़त से पत्थर फेंक कर प्रतियोगिता करते थे । वे हमारे खेल हुआ करते थे । आज के युवाओं को वह मोका नहीं मिला, तो वे अभी वही खेल खेल रहे हैं। पहले निशाना नदी पहाड़ और पेड़ होते थे, आज निशाना इन्सान हैं। कुछ काम भी तो नहीं है ।
बैठे बैठे क्या करें करना है कुछ काम,
शुरू करो पथराव ही, लैकर धर्म का नाम ।
क्योंकि अंताक्षरी तो पुरानी पीढ़ी की है, उसमें आधुनिकता कम पिछड़ा पन ज्यादा लगता है। और फिर चिंता भी कुछ नहीं, बैठे बिठाए खाने को मिलता हो तो कोई बेवकूफ ही होगा जो काम के बारे में सोचेगा, और एक दिन काम पर ना जाने से कल की रोटी की चिंता सताती हो, तो भी कोई बेवकूफ ही होगा जिसको नारेबाजी करने में मजा आएगा।
तो फिर कौन हैं वे लोग जो महीने भर काम पर जाने के बजाय एक जगह बैठे हैं ? कहां से आती है रोटी ? कौन भेजता है इनको, देस की चिंता क्या सिर्फ साधन-संपन्न लोगों को ही होती है ?
गरीब सिर्फ बोट देने जा सकता है, हां, वो जा सकता है, क्योंकि उस दिन छुट्टी होती है ।
आज भी जिन घरों के बच्चे बचपन से घर का राशन लाना, नल से पानी भरना, मां बाप के काम में मदद करना, जैसे काम करते रहे हैं उनकी ऊर्जा का सही उपयोग हो चुका है, और वो ऐसी जगहों पर कभी दिखाई नहीं दैगे ।
पं. रवि शाक्य,
संगीत एवं आध्यात्म गुरु
👌👌
ReplyDeleteधन्यवाद बाबा
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